रविवार, 2 अगस्त 2015

1857 की क्रांति के नायक बिहार की शान---बाबू वीर कुँवर सिंह पंवार

   महाभारत युद्ध के बाद बीते हजारों वर्षों में 75 वर्ष की उम्र के बाद किसी वीर ने युद्ध के लिए तलवार उठाई ,ऐसा सिर्फ एक ही उदाहरण है वह है बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर के राजा वीरवर कुँवर सिंह पंवार ।जिन्होंने 80 वर्ष की आयू में अंग्रेजों के विरुद्ध बिगुल बजाकर ,संघर्ष का नेतृत्व कर इतिहास के पन्नों में ऐसा स्वर्णिम पृष्ठ जोड़ा है ,जिसकी तुलना नहीं की जासकती है ।इतिहास के इस महान क्रांति नायक बिहार के शेर कुँवर सिंह जी पँवार ने सिद्ध कर दिया कि "शेर और राजपूत कभी वृद्ध (बूढ़े )नहीं होते "किन्तु ऐसा लगता है कि हर कहावत को चरितार्थ होने सदियों लग जाते है।जिन लोगों ने कहावतों को चरितार्थ कियाहै ,उन्हें अंगुलियों पर गिना जा सकता है ।
  बाबू वीर कुंवर सिंह (1777-1858)विदेशी शासन के खिलाफ लोगों द्वारा छेड़े गए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम  (1857-58)के नायकों में से एक थे ।1857के विद्रोह। के दौरान इस देदीप्यमान व्यक्ति ने ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों से डट कर मुकावला किया ।वीर कुंवर सिंह जी जगदीशपुर ,निकट आरा  ,जो वर्तमान में भोजपुर का एक भाग है ,के राजपूत घराने के जमींदार थे ।भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन्होंने ब्रिटिश सेना के खिलाफ सशस्त्र बलौ के एक दल का कुशल नेतृत्व किया ।80 वर्षकी व्रद्ध अवस्था के बाबजूद ,उनके नाम ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों में भय उत्पन्न कर देता था ।उन्होंने कई स्थानों परब्रटिश सेना को कड़ी चुनौती दी ।ऐसा लगता था कि कुंवर सिंह के कारण पूरा पश्चिमी बिहार विद्रोह की आग में जल उठेगा और ब्रिटिश नियंत्रण से बाहर हो जायेगा ।वह बिहार के अंतिम शेर थे ।उनकेनेत्रत्व में बिहार के राजपूतों ने अंग्रेजों के विरुद्ध जो सशस्त्र संघर्ष किया वह इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ है ।उनके संघर्ष की दास्तांन ,बिहार के कोने -कोने में गांव -गांव में चर्चित रही है ।किन्तु इसे दुर्भाग्यही कहा जायगा क़ि राजपूतों का अंग्रेजों के विरुद्ध यह संघर्ष देश के कोने -कोने में न जाना जा सका है  ,न पढ़ा जा सका है ।जन साधारण तो बहुत दूर की बात है ,आम राजपूतो को भी कुंवर सिंह पंवार के संघर्ष ,उनके त्याग ,वीरता ,साहस ,शौर्य और बलिदान की कोई विशेष जानकारी नही है ।
   अंग्रेजों के विरुद्ध बिहार में विद्रोह का प्रारम्भ 12जून 1857को हुआ ।25जुलाई ,1857 को दानापुर छावनी में जब अंग्रेज अधिकारियों ने सैनिकों को शस्त्र जमा करा देने का आदेश दिया तो वहां भी विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी ।26 जुलाई को विद्रोही पलटन मुक्ति सेना के रूप में आरा पहुँच गई ।मुक्ति सेना ने उसी क्षेत्र के जगदीशपुर निवासी 80 वर्षीय कुंवर सिंह पंवार को अपना सर्वोच्च नेता स्वीकार किया और प्रधान शासक के रूप में उनका अभिषेक किया ।कुंवर सिंह पंवार छापामार युद्ध के विशेषज्ञ माने गये ।कुछ समय बाद कुंवर सिंह अपनी सेना की एक टुकड़ी के साथ युद्ध का मूल्यांकन करने तथा उसको नया आयाम देने के उदेश्य से 1858के प्रारम्भ में सासाराम ,रोहतास ,मिर्जापुर /रींवा ,बांदा ,कालपी ,कानपूर के प्रमुख विद्रोही नायकों से संपर्क करते हुए मार्च के प्रारम्भ में लखनऊ पहुंचे जहां उनका क्रांतिकारियों ने बड़ा सम्मान किया।अवध के राजा ने उन्हें शाही पोशाक से सम्मानित किया और आजमगढ़ जिले में आने वाले क्षेत्र की जागीर प्रदान की ।मार्च ,1858 में उन्होंने आजमगढ़ को अधिकृत कर लिया ।22मार्च 1858 को कुंवर सिंह जी और उनके साथियों ने अतरौलिया पर बहुत बड़ा आकस्मिक हमला किया और कर्नल मिलमैन के नेतृत्व वाले ब्रिटिश बलों को आजमगढ़ तक वापिस खदेड़ दियाकुंवर सिंह की सेना में 5 से 12 हजार तक सिपाही थे जो उनकी बेजोड़ संगठन श
क्ति के परिचायक थे ।कुंवर सिंह जी द्वारा उस क्षेत्र के घेराव से ब्रिटिश अधिकारीयों को पुरे क्षेत्र की पराजय का भय और अधिक बढ़ गया ।गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग को स्थिति से निपटने के लिए अत्यावश्यक उपाय करने पड़े क्यों कि कुंवर सिंह के साहस व् शौर्य से वे परिचित थे ।ब्रिटिश सेना के नये -नए दस्ते आते रहे ,परन्तु कुंवर सिंह ने उन्हें बार -बार क्रांतिकारियों के नियंत्रण में लड़ाई में रखा ।
   15अप्रैल 1858 को जनरल लुगाई से कुंवर सिंह जी की आजमगढ़ में ही सामना हो गया जिसमें वे अविजित रहे किन्तु अगले ही दिन उन्होंने आरा लौट जाने का कार्यक्रम बना लिया ।वे 18अप्रैल को बलिया के नगरा सिकंदरपुर होते हुए मनिथर आये और वहीँ पड़ाव डाल दिया ।20 अप्रैल को कैप्टेन डगलस ने उनकी सेना पर आक्रमण कर दिया किन्तु कुंवर सिंह जी अपनी सेना को बचाकर शिबपुर घाट पहुंचा देने में सफल होगये ।उन्होंने उसी दिन गंगा पार कर लिया ,किन्तु गंगा नदी पार करते समय अंग्रेजी सेना ने उनकी नाव पर भयंकर गोलिया चलायी जिससे एक गोली कुंवर सिंह जी की बाह में लगी ।ऐसा कहा जाता है कि गोली का शरीर में जहर फैलने की बजह से कुंवर सिंह जी ने अपना एक हाथ स्वयं तलवार से काट कर गंगा को भेंट कर दिया और गंगा पार कर हाथी पर सवार होकर अपने गृह नगर जगदीशपुर पहुँच गये ।23 अप्रैल को अंग्रेज सेना तोपों से सुसज्जित होकर उनका पीछा करते हुए उनके गृह निवास तक पहुँच गई जहाँ उनके छोटे भाई अमर सिंह जी ने अंग्रेजों का बड़े साहस से जोरदार मुकावला किया ।अंग्रेज कमांडर ली ग्रैंड भी मारा गया किन्तु 24 अप्रेक् को घायल कुंवर सिंह जी भी शहीद हो गए ।वे विजेता के रूप में इस भारत भूमि से हमेशा के लिए विदा होगये ।भयंकर लड़ाइयों के बावजूद उन्होंने राजपूतों की शानदार परम्परा को बरकरार रखा।
   उनकी शहादत के साथ ही सन् 1857 के उस अदभूत सैनानी का अंत हो गया जिसका इतिहासकारों ने एक महान सैनिक नेता के रूप में मूलयांकन किया है ।ओजस्वी व्यक्तित्व तथा छापामार युद्ध में अपनी अदभुत प्रवीणता तथा अनेक सैनिक सफलताओं से विद्रोह के प्रमुख स्तम्भ बन गये थे ।अनेक इतिहासकारों ने स्वीकार किया कि उनमें वीर शिवाजी जैसा तेज था ।वे इतने लोकप्रिय हुए कि भोजपुर जिले का बच्चा -बच्चा उनके बलिदान को  आज तक स्मरण करता है।मैं ऐसे महान स्वतंत्रता सैनानी को सत् -सत् नमन करता हूँऔर आशा करता हूँ कि हमारे समाज की नई पीढ़ी उनके आदर्शों से प्रेरणा लेकर देश व् समाज के उत्थान में सहभागी बनेगी ।।जय हिन्द ।जय राजपूताना ।
लेखक आभारी है श्री गोपाल सिंह जी राठौड़ ,चित्तौड़ एवं अन्य बन्धुओं का जिनके लेख व् कृतियों की मदद से इस महान स्वतंत्रता सैनानी के बलिदान को मैंने लिखने का प्रयास किया ।
साभार -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन

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