बुधवार, 24 जून 2015

महाराणी शूरवीर दुर्गावती

१. बाल्यावस्था से ही शूर, बुद्धिमान और साहसी रानी दुर्गावती
२. रानी दुर्गावती ने गोंड राजवंशव की बागडोर (लगाम) थाम ली
३. आक्रमणकारी बाजबहादुर जैसे
शक्तिशाली राजा को युद्ध में हराना
४. अकबर का सेनानी तीन बार रानि से पराजित
५. गोंडवाना की स्वतंत्रता के लिए आत्मबलिदान देनेवा ली रानी
    गोंडवानाको स्वतंत्र करने हेतु जिसने प्राणांतिक युद्ध किया और जिसके रुधिर की प्रत्येक बूंद में गोंडवाना के स्वतंत्रता की लालसा थी, वह रणरागिनी थी महारानी दुर्गावती । उनका इतिहास हमें नित्य प्रेरणादायी है ।

 

१. बाल्यावस्थासे ही शूर, बुद्धिमान और साहसी रानी दुर्गावती

रानी दुर्गावती का जन्म १० जून, १५२५ को तथा हिंदु कालगणनानुसार आषाढ शुक्ल द्वितीया को चंदेल राजा कीर्ति सिंह तथा रानी कमलावती के गर्भ से हुआ । वे बाल्यावस्था से ही शूर, बुद्धिमान और साहसी थीं । उन्होंने युद्धकला का प्रशिक्षण भी उसी समय लिया । प्रचाप (बंदूक) भाला, तलवार और धनुष-बाण चलाने में वह प्रवीण थी । गोंड राज्य के शिल्पकार राजा संग्रामसिंह बहुत शूर तथा पराक्रमी थे । उनके सुपुत्र वीरदलपतिसिंह का विवाह रानी दुर्गावती के साथ वर्ष १५४२ में हुआ । वर्ष १५४१ में राजा संग्राम सिंह का निधन होने से राज्य का कार्यकाज वीरदलपति सिंह ही देखते थे । उन दोनों का वैवाहिक जीवन ७-८ वर्ष अच्छे से चल रहा था । इसी कालावधि में उन्हें वीरनारायण सिंह नामक एक सुपुत्र भी हुआ ।

 

२. रानी दुर्गावतीने गोंड राजवंशवकी बागडोर (लगाम) थाम ली

दलपतशाह की मृत्यु लगभग १५५० ईसवी सदी में हुई । उस समय वीर नारायण की आयु बहुत अल्प होने के कारण, रानी दुर्गावती ने गोंड राज्यकी बागडोर (लगाम) अपने हाथों में थाम ली । अधर कायस्थ एवं मन ठाकुर, इन दो मंत्रियों ने सफलतापूर्वक तथा प्रभावी रूप से राज्य का प्रशासन चलाने में रानी की मदद की । रानी ने सिंगौरगढ से अपनी राजधानी चौरागढ स्थानांतरित की । सातपुडा पर्वतसे घिरे इस दुर्ग का (किले का) रणनीतिकी दृष्टि से बडा महत्त्व था ।

कहा जाता है कि इस कालावधि में व्यापार बडा फूला-फला । प्रजा संपन्न एवं समृद्ध थी । अपने पति के पूर्वजों की तरह रानी ने भी राज्य की सीमा बढाई तथा बडी कुशलता, उदारता एवं साहस के साथ गोंडवन का राजनैतिक एकीकरण ( गर्‍हा-काटंगा) प्रस्थापित किया । राज्य के २३००० गांवों में से १२००० गांवों का व्यवस्थापन उसकी सरकार करती थी । अच्छी तरह से सुसज्जित सेना में २०,००० घुडसवार तथा १००० हाथीदल के साध बडी संख्या में पैदल सेना भी अंतर्भूत थी । रानी दुर्गावती में सौंदर्य एवं उदारता का धैर्य एवं बुद्धिमत्ता का सुंदर संगम था । अपनी प्रजा के सुखके लिए उन्होंने राज्य में कई काम करवाए तथा अपनी प्रजा का ह्रदय (दिल) जीत लिया । जबलपुर के निकट ‘रानीताल’ नामका भव्य जलाशय बनवाया । उनकी पहल से प्रेरित होकर उनके अनुयायियों ने चेरीतल का निर्माण किया तथा अधर कायस्थ ने जबलपुर से तीन मील की दूरी पर अधरतल का निर्माण किया । उन्होंने अपने राज्य में अध्ययन को भी बढावा दिया ।

 

३. आक्रमणकारी बाजबहादुर जैसे शक्तिशाली राजाको युद्ध में हराना

राजा दलपतिसिंह के निधन के उपरांत कुछ शत्रुओं की कुदृष्टि इस समृद्धशाली राज्य पर पडी । मालवा का मांडलिक राजा बाजबहादुर ने विचार किया, हम एक दिन में गोंडवाना अपने अधिकार में लेंगे । उसने बडी आशा से गोंडवाना पर आक्रमण किया; परंतु रानी ने उसे पराजित किया । उसका कारण था रानी का संगठन चातुर्य । रानी दुर्गावती द्वारा बाजबहादुर जैसे शक्तिशाली राजा को युद्ध में हराने से उसकी कीर्ति सर्वदूर फैल गई । सम्राट अकबर के कानों तक जब पहुंची तो वह चकित हो गया । रानी का साहस और पराक्रम देखकर उसके प्रति आदर व्यक्त करनेके लिए अपनी राजसभा के (दरबार) विद्वान `गोमहापात्र’ तथा `नरहरिमहापात्र’ को रानी की राजसभा में भेज दिया । रानी ने भी उन्हें आदर तथा पुरस्कार देकर सम्मानित किया । इससे अकबर ने सन् १५४० में वीरनारायणसिंह को  राज्य का शासक मानकर स्वीकार किया । इस प्रकार से शक्तिशाली राज्य से मित्रता बढने लगी । रानी तलवार की अपेक्षा बंदूक का प्रयोग अधिक करती थी । बंदूक से लक्ष्य साधने में वह अधिक दक्ष थी । ‘एक गोली एक बली’, ऐसी उनकी आखेट की पद्धति थी । रानी दुर्गावती राज्यकार्य संभालने में बहुत चतुर, पराक्रमी और दूरदर्शी थी ।

 

४. अकबरका सेनानी तीन बार रानिसे पराजित

अकबरने वर्ष १५६३ में आसफ खान नामक बलाढ्य सेनानी को (सरदार) गोंडवानापर आक्रमण करने भेज दिया । यह समाचार मिलते ही रानी ने अपनी व्यूहरचना आरंभ कर दी । सर्वप्रथम अपने विश्वसनीय दूतों द्वारा अपने मांडलिक राजाओं तथा सेनानायकों को सावधान हो जाने की सूचनाएं भेज दीं । अपनी सेना की कुछ टुकडियों को घने जंगल में छिपा रखा और शेष को अपने साथ लेकर रानी निकल पडी । रानी ने सैनिकों को मार्गदर्शन किया । एक पर्वत की तलहटी पर आसफ खान और रानी दुर्गावती का सामना हुआ । बडे आवेश से युद्ध हुआ । मुगल सेना विशाल थी । उसमें बंदूकधारी सैनिक अधिक थे । इस कारण रानी के सैनिक मरने लगे; परंतु इतने में जंगल में छिपी सेना ने अचानक धनुष-बाण से आक्रमण कर, बाणों की वर्षा की । इससे मुगल सेना को भारी क्षति पहुंची और रानी दुर्गावती ने आसफ खान को पराजित किया । आसफ खानने एक वर्ष की अवधि में ३ बार आक्रमण किया और तीनों ही बार वह पराजित हुआ ।

 

५. गोंडवानाकी स्वतंत्रताके लिए आत्मबलिदान देनेवाली रानी

अंत में वर्ष १५६४ में आसफखान ने सिंगारगढ पर घेरा डाला; परंतु रानी वहां से भागने में सफल हुई । यह समाचार पाते ही आसफखान ने रानीका पीछा किया । पुनः युद्ध आरंभ हो गया । दोनो ओर से सैनिकों को भारी क्षति पहुंची । रानी प्राणों पर खेलकर युद्ध कर रही थीं । इतने में रानीके पुत्र वीरनारायण सिंह के अत्यंत घायल होने का समाचार सुनकर सेना में भगदड मच गई । सैनिक भागने लगे । रानी के पास केवल ३०० सैनिक थे । उन्हीं सैनिकों के साथ रानी स्वयं घायल होने पर भी आसफखान से शौर्य से लड रही थी । उसकी अवस्था और परिस्थिति देखकर सैनिकोंने उसे सुरक्षित स्थान पर चलने की विनती की; परंतु रानी ने कहा, ‘‘मैं युद्ध भूमि छोडकर नहीं जाऊंगी, इस युद्ध में मुझे विजय अथवा मृत्यु में से एक चाहिए ।” अंतमें घायल तथा थकी हुई अवस्था में उसने एक सैनिक को पास बुलाकर कहा, “अब हमसे तलवार घुमाना असंभव है; परंतु हमारे शरीर का नख भी शत्रु के हाथ न लगे, यही हमारी अंतिम इच्छा है । इसलिए आप भाले से हमें मार दीजिए । हमें वीरमृत्यु चाहिए और वह आप हमें दीजिए”; परंतु सैनिक वह साहस न कर सका, तो रानी ने स्वयं ही अपने पास कटार को सीने में गौंप दी।

   वह दिन था २४ जून १५६४ का, इस प्रकार युद्ध भूमि पर गोंडवाना के लिए अर्थात् अपने देश की स्वतंत्रता के लिए अंतिम क्षण तक वह झूझती रही । गोंडवाना पर वर्ष १९४९ से १५६४ अर्थात् १५ वर्ष तक रानी दुर्गावती का अधिराज्य था, जो मुगलों ने नष्ट किया । इस प्रकार महान पराक्रमी रानी दुर्गावती का अंत हुआ । इस महान वीरांगना को हमारा शतशः प्रणाम !

जिस स्थानपर उन्होंने अपने प्राण त्याग किए, वह स्थान स्वतंत्रता सेनानियों के लिए निरंतर प्रेरणा का स्रोत रहा है ।
उनकी स्मृति में १९८३ में मध्यप्रदेश सरकार ने जबलपुर विश्वविद्यालय का नाम रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय रखा ।
इस बहादुर रानी के नामपर भारत सरकार ने २४ जून १९८८ को डाक का टिकट प्रचलित कर (जारी कर) उनके बलिदान को श्रद्धांजली अर्पित की

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